Tuesday, 18 August 2020

रिव्यू-उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी ‘खुदा हाफिज़’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
विद्युत जामवाल किसी फिल्म के हीरो हों तो उसमें कमांडो स्टाइल का एक्शन ही होगा। इसे कोई सीधी-सी फिल्म में क्यों नहीं लेता? लीजिए, ले लिया इसेसीधी-सीफिल्म में। दे दिया इसेसीधा-सारोल। पर क्या यह बंदा इस फिल्म और अपने रोल के साथ न्याय कर पाया? और उससे भी ज़रूरी बात, कि क्या यह फिल्म इस बंदे के साथ न्याय कर पाई? आइए, पहले कहानी का मुआइना कर लें।

2008 का लखनऊ। समीर और नरगिस की शादी हुई ही थी कि वैश्विक मंदी के चलते दोनों बेरोज़गार हो गए। दोनों ने खाड़ी के देश नोमान में नौकरी के लिए अर्जी डाली। नरगिस पहले चली गई, समीर बाद में जाएगा। लेकिन वहां पहुंचते ही नरगिस हो गई गायब। अब समीर पहुंचा है अपनी पत्नी को ढूंढने और उसे वापस लाने। ज़ाहिर है कि काम मुश्किल है, बहुत मुश्किल। लेकिन कहते हैं कि जिसके इरादों में हिम्मत हो, उसका हाफिज़ खुदा होता है।

कहानी नई भले ही हो, खराब तो बिल्कुल नहीं है। पहले भी ऐसीबागीटाइप कहानियां आती रही हैं जिनमें हीरो ने लापता हीरोइन की तलाश में ज़मीन-आसमान एक कर दिया और ज़रूरत पड़ी तो खून की नदियां तक बहा दीं। और जब हीरो विद्युत जामवाल हो तो ज़ाहिर है कि वह चंद गुंडों तो क्या, लंबी-चौड़ी फौज को भी अकेले धूल चटा सकता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। इस बार अपना हीरो एक आम आदमी है। इतना आम कि अपना कसरती बदन छुपाने के लिए उसने पूरी फिल्म में पूरी बाजू के कपड़े पहने हैं। एक्शन उसने किया है, लेकिन बहुत ही थोड़ा और जितना ज़रूरी हुआ, बस उतना। लेकिन क्या एक एक्शन हीरो को आम आदमी दिखाने भर से फिल्म खास हो जाती है?

यह इरादा बुरा नहीं है कि एक एक्शन इमेज वाले हीरो से कम और हल्का एक्शन करवाते हुए उसे भावपूर्ण एक्टिंग करने का मौका दिया जाए। विद्युत के अभिनय वाले पक्ष को उभारने के इरादे से बनाई गई यह फिल्म भी खराब नहीं है। लेकिन इसके लिए ज़रूरत होती है एक सचमुच दमदार कहानी की, एक बेहद कसी हुई स्क्रिप्ट की, कुछ तगड़े संवादों की और बहुत ही कसे हुए निर्देशन की। लेकिन अफसोस, इस फिल्म में ये चारों ही चीज़ें कमज़ोर हैं, काफी कमज़ोर। एक हल्की कहानी को भी उम्दा पटकथा से उठाया जा सकता था लेकिन उसमें वही पुराने, घिस चुके फॉर्मूले डाल कर उसे और घिसा हुआ बना दिया गया। कुछ सख्त तो कुछ मददगार पुलिस वाले, अपनी जान की परवाह किए बगैर पराए मुल्क में हीरो की मदद करता एक नेकदिल आम आदमी, फंसे हुए हीरो को ऐन मौके पर निकालती सरकारी मशीनरी... वगैरह-वगैरह।

हालांकि विद्युत के अभिनय की रेंज को समझते हुए उन्हें एक ऐसा किरदार सौंपा गया जिसमें उन्हें ज़्यादा डूब कर एक्टिंग करनी भी नहीं थी। उन्होंने अपनी तरफ से एक परेशान, बेबस, घबराए हुए पति की एक्टिंग करने में मेहनत की भी। लेकिन एक तो वह इस काम में गहराई नहीं ला पाए और दूजे, उन्हें देख कर तगड़े वाले एक्शन की जो उम्मीद थी, उसे भी फिल्म ने तोड़ दिया। पिछले साल स्वर्गीय अमरीश पुरी के पोते वर्धन पुरी के साथ ‘यह साली आशिकी’ जैसी आई और भुला दी गई फिल्म से अपनी शुरूआत करने वाली शिवालिका ओबेरॉय नरगिस के किरदार में बहुत सुंदर और प्यारी लगीं। बहुत ही सुंदर और बहुत ही प्यारी। पर काश, उनके किरदार को थोड़ा और विस्तार मिल पाता। शिव पंडित, इखलाक़ खान, विपिन शर्मा आदि ठीक लगे तो आहना कुमरा ने प्रभावी काम किया। लेकिन छाए रहे अन्नू कपूर। बिल्कुल आखिरी वाले सीन में तो वह आंखें नम करवा गए।

डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई इस फिल्म का गीत-संगीत साधारण रहा। उज़बेकिस्तान की लोकेशंस प्यारी लगीं। फिल्म का नाम इस की कहानी पर खास खरा नहीं उतरा। खरी तो यह फिल्म भी नहीं उतरी- उम्दा कहानी दिखाने की उम्मीदों पर ज़ोरदार एक्शन देख पाने की उम्मीदों पर।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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