Monday, 3 August 2020

रिव्यू-अमेज़िंग ‘शकुंतला देवी’ की नॉर्मल कहानी

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
पांच साल की एक बच्ची चुटकियों में गणित की मुश्किल से मुश्किल गणनाएं कर देती है। कभी स्कूल तक नहीं गई इस बच्ची ने देश-विदेश में अपनेमैथ्स शोज़के ज़रिए भरपूर नाम, शोहरत, पैसा कमाया। कम्प्यूटर से भी तेज़ कैलकुलेशन करने के कारण उसेह्यूमैन कम्प्यूटरतक कहा गया।गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्डमें उसका नाम भी आया। वह महान गणितज्ञ कहलाई, मशहूर ज्योतिषी बनीं, इंदिरा गांधी के विरुद्ध चुनाव में उतरी। उसने गणित, ज्योतिष, समलैंगिकता पर किताबें लिखीं, कई उपन्यास लिखे। उसी की ज़िंदगी पर बनी है यह फिल्म। कहिए है वह एक अमेज़िंग हस्ती...! काश, कि यह फिल्म भी उतनी ही अमेज़िंग हो पाती।

शकुंतला देवी भले ही महान (या मशहूर) गणितज्ञ रही हों लेकिन एक आम दर्शक उनके नाम से अपरिचित ही है। इसलिए जब वह फिल्म के ट्रेलर में देखता है कि दशकों पहले साड़ी-चोटी वाली एक हिन्दुस्तानी नारी ने अपनी गणनाओं से पूरी दुनिया को चौंका दिया था तो वह उसके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानना चाहता है, उसके संघर्ष को, उसके सफर को, उसके तरीकों को समझना चाहता है, ताकि वह खुद को गर्व महसूस करवा सके, ताकि वह इस कहानी से प्रेरणा हासिल कर सके, ताकि वह खुद से और अपने बच्चों से कह सके कि इसे देखो, यह एक महान हस्ती की कहानी है, सीखो कुछ इस से। लेकिन अफसोस यह फिल्म ऐसा कुछ नहीं दिखाती।

एक दिन स्टापू खेलते-खेलते पांच साल की बच्ची ने एक मुश्किल सवाल हल कर दिया। उसके पिता को उसमें प्रतिभा दिखी तो वह जगह-जगह उसकेमैथ्स शोज़करवाने लगा। लड़की में अकड़ गई कि यह घर तो उसके पैसों से चलता है और उसके अंदर यह अकड़ ज़िंदगी भर बनी रही। यह फिल्म यही दिखाती है कि शकुंतला बहुत ही अकड़ू, घमंडी, अपने सामने किसी को कुछ भी समझने वाली औरत थी। अपने मैथ्स शोज़ में वह हर बात, हर हरकत ऐसे हंसते हुए करती है जैसे सामने वाले का मज़ाक उड़ा रही हो। वह यह नहीं बताती, ही बता पाती है कि वह कैसे यह सब कर लेती है। यहां तक कि उसके दिमाग का टैस्ट लेने वाले डॉक्टर भी ऐसा कुछ नहीं बता पाते और यहीं आकर दर्शक निराश होता है। एक जगह उसकी बेटी किसी को एक तरीका बताती है लेकिन वह तरीका हर संख्या पर लागू नहीं होता।

दरअसल इस फिल्म को लिखा ही उलटे ढंग से गया है। इसे एक महान (या मशहूर) हस्ती का प्रशस्ति-गान होना था लेकिन यह उसका निंदा-गीत बन कर रह गई है। एक सीन में शंकुतला अपने पति से झगड़ते हुए कहती है-‘तुम भी बाकी मर्दों जैसे ही हो।जबकि सच यह है कि यही सीन दिखाता है कि खुद शकुंतला उन आमजनानियोंजैसी है जो बात-बात पर पति को ताना देती हैं। उसके किए किसी भी काम कोयह तुम्हारा फर्ज़ हैऔर खुद के किए हर काम कोपरिवार पर अहसानमानती हैं। जो पति को बार-बार यह जताना नहीं भूलतीं कि बच्चा जनने में उसने ज़्यादा कष्ट सहे हैं। जिनके लिएपरिवारकी शांति और एकता से ऊपर उनके उसईगोका स्थान होता है जिस पर नारी होने के नाते उनका हक होता ही होता है। सोचिए कि अपने देश की ऐसी हस्ती पर पहली बार कोई फिल्म बने और उसमें उसकी खूबियों, अच्छाइयों से ज़्यादा फोकस उसकी कमियों और बुराइयों पर रहे तो इसे किसकी साज़िश माना जाए? इसे लिखने वालों की, बनाने वालों की याबनवानेवालों की...?

फिल्म की स्क्रिप्ट बेहद कमज़ोर है। मैथ्स जैसी दुनिया की सबसे तार्किक चीज़ पर बनी फिल्म में अतार्किक बातों की भरमार है। मां के पिता पर लगाए झूठे आरोप के बारे में बेटी 13 साल बाद बात करती है क्योंकि फिल्म में 13 साल पहले का वो सीन एकदम पहले ही आया होता है। एक सीन में शकुंतला अपने ड्राईवर से कार रुकवाते हुए कहती है-गाड़ी आगे नहीं जाएगी। जबकि साफ दिखता है कि आगे भी उतनी ही चौड़ी जगह है। फिल्म यह भी बताती है किडॉनआने से पहले उस फिल्म का एक मशहूर डायलॉग शकुंतला का पति उससे बोल चुका था।

बतौर डायरेक्टर अनु मैनन पहले भी बहुत कुछ खराब बना चुकी हैं। यह फिल्म उनकी उसखराब-लिस्टमें एक और नाम जोड़ती है। दो टाइम-पीरियड में आगे-पीछे जाती कहानी से दर्शक तारतम्य नहीं बिठा पाता। दृश्यों में दोहराव इतना ज़्यादा है कि बोरियत होने लगती है। एक गणितज्ञ की कहानी की बजाय यह एक मां-बेटी के वैचारिक टकराव की कहानी ज़्यादा लगती है। आखिरी 15 मिनट में फिल्म इमोशनल ट्रैक पर आकर संभलती है और यही वे पल हैं जो अच्छे लगते हैं। जो बताते हैं कि अक्सर हम अपने मां-बाप को स्वार्थी समझते समय खुद कितने स्वार्थी हो जाते हैं।

लोकेशंस, कैमरा, पहनावे जैसी तकनीकी चीज़ें इस अंदर से कमज़ोर फिल्म को सहारा देती हैं। विद्या बालन का अभिनय लाजवाब लगता है। अमित साध लुभाते हैं। सान्या मल्होत्रा कहीं-कहीं बहुत ओवर होने लगती हैं। जिशु सेनगुप्ता प्रभावी रहे हैं। गीत-संगीत साधारण है। फिल्म अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है।

एक सीन में शकुंतला की बेटी उससे पूछती है-‘आप बाकी मॉम्स की तरह नॉर्मल क्यों नहीं हो सकती हैं?’ जवाब मिलता है-‘जब अमेज़िंग हो सकती हूं तो नॉर्मल क्यों बनूं?’ काश, कि यह फिल्म भी अमेज़िंग होती जिसे इसके लिखने-बनाने वालों ने कत्तई नॉर्मल बना कर रख छोड़ा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

4 comments:

  1. Fully agree with u . It could be far better

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  2. Sachchi ... Bahut disappointed kiya iss film neN.
    Badi ummeed se bachchoN ko saath lekar film dekhne baithi thi .

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