एक छोटी बच्ची ने पायलट बनने का सपना देखा। पिता ने हर कदम उसका साथ दिया। पायलट नहीं बन पाई तो उसे एयरफोर्स में जाने को कहा। लेकिन क्या हर कदम पर दुनिया उस लड़की का स्वागत ही करेगी? अपने समाज की तो आदत ही रही है लड़कियों के पंख कतरने की। लेकिन गुंजन लड़ी,
लड़ी तो जीती, जीती तो ऐसे कि मिसाल बन गई।
इस फिल्म को एयरफोर्स ऑफिसर गुंजन सक्सेना की सच्ची कहानी बताया जा रहा है। गुंजन सक्सेना को पहली महिला पायलट बताया जा रहा है। फिल्म में गुंजन के साथ भेदभाव बताया जा रहा है। एयरफोर्स की तरफ से इस पर ऐतराज़ जताया जा रहा है... अजी छोड़िए, इन तथ्यात्मक बातों में क्या रखा है। कहानी के सत्व को परखिए। जो पर्दे पर दिखाया जा रहा है, उसमें डूबिए और हासिल कीजिए उस आनंद को जो बेटियों को आगे बढ़ते, उन्हें आसमान की परी बनते देख कर मिलता है। गर्व से सीना न फूल जाए, आंखों से खुशी के आंसू न बह निकलें, रगों में फड़कन न महसूस हो,
फिर कहिएगा।
यह सिर्फ एक गुंजन की ही कहानी नहीं है,
यह एक ऐसी लड़की की कहानी भी नहीं है जिसे कदम-कदम पर दबाया गया,
लौट जाने को मजबूर किया गया। बल्कि यह हर उस लड़की की कहानी है, उन तमाम लड़कियों की कहानी है जो सही समय पर ‘सैटल’ होने की बजाय कुछ हट कर करना चाहती हैं। यह कहानी बताती है कि लड़कियों के रास्ते की पहली अड़चन खुद उनके घर में,
घर वालों की सोच में होती है। उसे पार करो तो गली, मौहल्ला,
समाज, दुनिया उसके आड़े आ खड़ी होती है। ‘लड़की है तो लड़कियों की तरह रहे’ की सोच रखने वाले इस समाज में गुंजन जैसी लड़कियों के आगे बढ़ने की यह कहानी उसके पिता जैसे उन तमाम अभिभावकों को भी सलाम करती है जो हर वक्त, हर मोड़ पर अपनी बच्चियों के पंखों को निखार रहे होते हैं। इस कहानी को लिखने वालों, तुम्हें सलाम।
बतौर निर्देशक शरण शर्मा की यह पहली फिल्म है और उन्होंने बखूबी अपने काम को संभाला है। बिना ‘ज़्यादा फिल्मी’ हुए वह परिस्थितियों को गढ़ते गए और कहानी ने अपना रास्ता खुद तलाश लिया। बतौर अदाकारा यह फिल्म जाह्न्वी कपूर को नई ऊंचाई पर ले जाती है। अपने किरदार को समझ कर उसके मुताबिक रिएक्ट करने की उनकी क्षमता को निखार कर सामने ला पाती है यह फिल्म। विनीत कुमार सिंह, अंगद बेदी, मानव विज जैसे सभी कलाकार भरपूर साथ निभाते हैं लेकिन छत्र बन कर छाते हैं पंकज त्रिपाठी। उन्हें देख कर यह नहीं लगता कि वह अभिनय कर रहे हैं। लगता है कि गुंजन जैसी लड़कियों के पिता ऐसे ही तो होते होंगे। इस कायनात का शुक्रिया कि हम ऐसे वक्त में हैं जब पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकार हमारे सामने हैं।
नेटफ्लिक्स पर आई इस फिल्म को देख डालिए। इस किस्म की फिल्में सिर्फ हमारी बेटियों को ही रास्ता नहीं दिखाती हैं बल्कि ये हमें भी बताती हैं कि एक आदर्श समाज बनाना है तो हमें कैसी सोच रखनी होगी। इस किस्म की फिल्में जीना, जीतना,
जूझना, उड़ना, टिके रहना तो सिखाती ही हैं। इन्हें देख कर आंखें नम हों तो होने दीजिएगा। अपने भीतर के कोमल अहसास किसी को बुरे नहीं लगते।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
लिकिन पंकज त्रिपाठी जी और भी अच्छा कर सकते थे,
ReplyDeleteबढ़िया 👌 अभी देखी नहीं पर पंकज जी के लिए देखनी है
ReplyDeleteWah humesha ki tmtarah ek achhe film ko a bahut hi zyada achha review...Jiske bina film dekhna adhura sa lagta hai...thank you sir...
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