शहर के प्रतिष्ठित रईस ठाकुर रघुबीर सिंह का कत्ल हुआ है। उन्हीं के घर में, उन्हीं की बंदूक से, उन्हीं के परिवार के बीच। उनकी दूसरी शादी की रात को। ज़ाहिर है कि कातिल कोई घर का ही आदमी है। या फिर कोई औरत...? वो औरत, जो कल तक उनकी रखैल थी और आज शादी के बाद ठकुराईन? कत्ल की तफ्तीश इंस्पैक्टर जटिल यादव के ज़िम्मे है। नाम का जटिल लेकिन सुलझी हुई सोच वाला एक ऐसा इंसान जो सच को कहीं से भी खोद कर निकालने की हिम्मत और कुव्वत रखता है। पर क्या जटिल सुलझा पाएगा इस केस को, जिसके धागे खुलेंगे तो कइयों की नंगई सामने आएगी?
अपने कलेवर से एक सस्पैंस मर्डर मिस्ट्री लगने वाली नेटफ्लिक्स की यह फिल्म पारिवारिक रिश्तों के चरमराते ताने-बाने भी दिखाती है। यह हमें अपने समाज के उन अंधेरे कोनों में ले जाती है जहां सच से उपर झूठ जगह पाता है और जहां रिश्तों की पवित्रता से ज़्यादा अहमियत रुतबे को दी जाती है। जहां परिवार की शान किसी इंसान की जान से ज़्यादा कीमती समझी जाती है।
इस फिल्म की कहानी दमदार है। उससे ज़्यादा दमदार इसकी स्क्रिप्ट है। कदम-कदम पर नई बातें सामने आती हैं, राज़ खुलते हैं, रहस्यों से पर्दा उठता है जो हमें चौंकने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर करता है। स्मिता सिंह इससे पहले ‘सेक्रेर्ड गेम्स’ लिखने वालों में भी शामिल रही हैं। इस फिल्म की कहानी, पटकथा और संवादों से वह अपनी कलम की ताकत दिखाती हैं। हालांकि दो-एक जगह उनसे भारी चूक हुई है और दो-एक जगह हल्की,
लेकिन ये चूकें इस कहानी के प्रवाह में दिखाई नहीं देतीं। मैं भी उन्हें नहीं बताऊंगा वरना आपका मजा खराब होगा। आपको वे भूलें दिखें तो कमैंट कीजिएगा।
डायरेक्टर हनी त्रेहन की भले ही यह पहली फिल्म हो लेकिन बरसों तक विशाल भारद्वाज के साथ काम करने के चलते उनके निर्देशन में परिपक्वता नज़र आती है। कहानी के धागों को उन्होंने जिस खूबी के साथ बुना है वह उन्हें ऊंचे मकाम पर ले जाता है। हनी ने बहुतेरी फिल्मों के लिए कास्टिंग का काम भी किया है और यही वजह है कि इस फिल्म के एक-एक किरदार में एकदम परफैक्ट कलाकार दिखाई देते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दिकी से लेकर राधिका आप्टे, शिवांगी रघुवंशी, निशांत दहिया, आदित्य श्रीवास्तव, पद्मावती राव, रिया शुक्ला, श्वेता त्रिपाठी, रवि शाह, इला अरुण, बलजिंदर कौर, तिग्मांशु धूलिया, खालिद तैयबजी, ज्ञानेंद्र त्रिपाठी, स्वानंद किरकिरे... हर शख्स सिर्फ किरदार लगता है, कलाकार नहीं। खास बात यह भी कि इनमें से जिसकी जितनी ज़रूरत महसूस हुई उसे उतना भर ही इस्तेमाल किया गया, बिना उसका कद-रुतबा देखे। बड़ी बात है यह।
विश्वसनीय लोकेशन इस कहानी की जान हैं तो पंकज कुमार अपने कैमरे से इसे और बुलंदी पर ले जाते हैं। मेकअप, कॉस्ट्यूम इसे रंगत देते हैं। कहानी के बैकग्राउंड में स्नेहा खानवल्कर के संगीत में राजशेखर और स्वानंद किरकिरे के गीतों का उम्दा इस्तेमाल फिल्म के असर को गाढ़ापन देता है। इन्हें गाया भी गजब गया है। फिल्म का नाम इस के मिज़ाज से पूरा न्याय नहीं करता है। यह और
बेहतर हो सकता था। फिर भी इस फिल्म को ज़रूर देखा जाना चाहिए-इसके
फ्लेवर के लिए, इसके तेवर के लिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों,
पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’
के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
तो देखते हैं आज... 👍🙏
ReplyDeleteतो देखते हैं आज... 👍🙏
ReplyDeleteदेखने लायक लगती है. लेकिन देखें कैसे ? क्या ये थियेटर में देखी जाएगी या ओटीटी पर रिलीज की जाएगी ? आपका लेख दिलचस्पी जगाता है.
ReplyDeleteखास बात यह भी कि इनमें से जिसकी जितनी ज़रूरत महसूस हुई उसे उतना भर ही इस्तेमाल किया गया, बिना उसका कद-रुतबा देखे। बड़ी बात है यह। ... bahut sahi likha hai aapne.
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