-दीपक दुआ...
दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से प्रशिक्षित प्रसिद्ध अभिनेता-निर्देशक राकेश चतुर्वेदी रंगमंच के अलावा फिल्मों में भी भरपूर सक्रिय रहते हैं। बतौर निर्देशक वह नसीरुद्दीन शाह को लेकर ‘बोलो राम’ और मनोज पाहवा के साथ ‘भल्ला एट हल्ला डॉट कॉम’ निर्देशित कर चुके हैं। बतौर अभिनेता ‘परज़ानिया’, ‘यूं होता तो क्या होता’, ‘पैडमैन’ आदि के बाद अक्षय कुमार की ‘केसरी’ में मुल्ला सैदुल्लाह के किरदार से काफी चर्चित हुए राकेश अब मशहूर सिनेमैटोग्राफर बाबा आज़मी के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘मी रक़्सम’ में दिखेंगे जो कि ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म ज़ी-5 पर आ रही है। प्रस्तुत है उनसे हुई चंद बातें-
-क्या है ‘मी रक़्सम’ और क्या है यह फिल्म?
-‘मी रक़्सम’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मैं नाचूंगी’ और जैसा कि इसके ट्रेलर से स्पष्ट है कि यह एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो मुस्लिम परिवार से होने के बावजूद भरतनाट्यम करना चाहती है,
करती है और कैसे वह तमाम मुश्किलों के बावजूद इस रास्ते पर चलती है।
-आप क्या कर रहे हैं इस फिल्म में?
-मैं इस बच्ची के रास्ते में मुश्किलें खड़ी कर रहा हूं। दरअसल इस फिल्म में दोनों तरफ के लोग हैं। मुस्लिम धर्म के ठेकेदार भी और हिन्दू धर्म के ठेकेदार भी। नसीरुद्दीन शाह साहब उस तरफ के ठेकेदार बने हैं और मैं इस तरफ का। मकसद हम दोनों का ही एक है कि कैसे इस बच्ची की राह में रोड़े बिछाए जाएं।
-बाबा आज़मी साहब के साथ मेरा बहुत पुराना जुड़ाव रहा है। कुछ साल पहले उन्होंने एक शॉर्ट फिल्म ‘कॉनेस्टी’ बनाई थी जिसे काफी तारीफें और अवार्ड्स मिले थे। उसमें सिर्फ दो ही कलाकार थे-एक शकील खान और दूसरा मैं। तो बस, पुराने ताल्लुकात रहे हैं सो उन्हें लगा होगा कि इस किरदार में मैं फिट हो सकता हूं इसलिए उन्होंने मुझे लिया।
-यह फिल्म तो बड़े पर्दे पर आनी थी लेकिन अब यह ओ.टी.टी. पर आ रही है। इसे लेकर आप कितने आशंकित या प्रसन्न हैं?
-आज की तारीख में सबसे बड़ी प्रसन्नता की बात तो यही है कि फिल्म रिलीज़ हो रही है। क्योंकि इस समय जो हालात हैं उसके मद्देनज़र थिएटर कब खुलेंगे, कैसे खुलेंगे, लोगों का क्या रिस्पांस होगा, यह कह पाना मुश्किल है। ऐसे में यह फिल्म सही समय पर आ रही है और ज़ी-5 जैसे बड़े ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म पर आ रही है, यही काफी है। रही आशंका की बात,
तो वह बिल्कुल नहीं है क्योंकि यह एक बहुत ही उम्दा कहानी पर बहुत ही सलीके से बनाई हुई फिल्म है और दर्शकों को अपने साथ जोड़ती है।
-यानी इसे देखने वाले निराश नहीं होंगे?
-बिल्कुल भी नहीं। यह जिस तरह से हमारे समाज में अभी भी मौजूद संकुचित और कट्टर सोच वाले लोगों को दिखाती है और उस बच्ची के संघर्ष को उभारती है, मुझे लगता है कि यह दर्शकों को एक सार्थक मैसेज देगी, उन्हें प्रेरित करेगी और जिसे हम अच्छा सिनेमा कहते हैं,
उस जगह पर जाकर खड़ी होगी।
-पर क्या आपको नहीं लगता कि इसका नाम ‘मी रक़्सम’ आम दर्शकों के लिए थोड़ा जटिल है?
-हां,
यह तो है। सुनने वाले को समझाना पड़ता है कि इसका क्या अर्थ है। लेकिन मुझे लगता है कि इसके पोस्टर वगैरह में कोई टैग लाइन लिखी जाएगी और उससे भी बड़ी उम्मीद मुझे यह है कि इसका यही नाम शायद इसके पक्ष में जाएगा क्योंकि दर्शक यह देखना चाहेंगे कि बाबा आज़मी के निर्देशन में नसीर साहब जैसे कलाकार अगर किसी फिल्म में आ रहे हैं तो वह क्या कहना चाहती है।
-इसमें किसी बड़े स्टार को लिया जाता तो क्या यह ज़्यादा बिकाऊ नहीं हो जाती?
-जी बिल्कुल हो जाती लेकिन शायद बाबा आज़मी साहब को इसे ज़्यादा बिकाऊ की बजाय ज़्यादा बेहतर बनाना था। उन्हें भी लोगों ने कहा कि इसे ले लो, उसे ले लो,
कहानी में थोड़ा-सा फेरबदल करके आलिया भट्ट को ले लो। लेकिन उनका कहना था कि मेरी कहानी की मासूमियत इस बच्ची और इसके पिता के संघर्ष में है,
मैं किसी स्टार को लेकर उस मासूमियत से समझौता नहीं कर सकता।
-नसीर साहब के साथ आपने बहुत सारा थिएटर किया है, उनके निर्देशन में आपने ‘यूं होता तो क्या होता’ में काम किया है और उन्होंने आपके निर्देशन में ‘बोलो राम’ में। पहली बार किसी फिल्म में आप एक साथ हैं, यह अनुभव कैसा रहा?
-नसीर साहब के साथ मौजूद होना ही अपने-आप में एक सीखने लायक अनुभव होता है। एक बात मैं आपको बताऊं कि लोगों को यह लगता होगा कि सामने उन जैसा कलाकार हो तो हमें बहुत मुश्किल होती है जबकि सच यह है कि वह सामने होते हैं तो चीज़ें बहुत आसान हो जाती हैं क्योंकि तब आपको पता होता है कि आप जो भी करेंगे, नसीर साहब उसे संभाल लेंगे। उनका अभिनय इतना सरल और सच्चा होता है कि वह सरलता और सच्चाई सामने वाले के काम में भी आ जाती है।
-आपके निर्देशन में बन रही ‘मंडली’ की क्या खबर है?
-‘मंडली’ के पोस्ट-प्रोडक्शन का काम ज़ोरों से चल रहा है और उम्मीद है कि सितंबर में इसकी पहली कॉपी आ जाएगी। उसके बाद देखेंगे कि अगर थिएटर खुलने में वक्त लगेगा तो उसे ओ.टी.टी. पर लाएंगे। लेकिन यह तमन्ना मेरी हमेशा रहेगी कि उसे बड़े पर्दे पर ज़रूर रिलीज़ करूं।
-कहानियां सुना रहा हूं लोगों को। एक मंच है ‘कहानी सुनोगे’, उस पर हम कुछ लोग अच्छी-अच्छी कहानियां पढ़ते हैं और उसे बहुत पसंद किया जा रहा है। बस,
कोशिश यही है कि खुद भी व्यस्त रहें और लोगों को भी कुछ न कुछ देते रहें।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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