-दीपक दुआ...
2011 में अगस्त के आखिरी दिनों की बात है। ईद पर सलमान खान की ‘बॉडीगार्ड’ के सामने पाकिस्तानी फिल्म ‘बोल’ आ रही थी। दिल्ली के महादेव रोड स्थित फिल्म्स डिवीज़न ऑडिटोरियम में उसका प्रैस-शो देख कर मैं निकला तो सन्न था। तब यह लेख लिखा था जो ‘फिल्मी कलियां’ में छपा था। वह लेख, ज्यों का त्यों प्रस्तुत है।
‘मारना ही जुर्म क्यों है,
पैदा करना क्यों नहीं...?’
‘जब खिला नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो...?’
फांसी के तख्ते पर खड़ी होकर ‘बोल’ की नायिका जैनब जब चिल्लाते हुए सामने मौजूद मीडिया पर ये सवाल फेंकती है तो सिनेमा के भीतर का अंधेरा और ज़्यादा स्याह हो जाता है। लगता है जैसे किसी झन्नाटेदार तमाचे ने गालों को छुआ हो। ज़ेहन पर एक अजीब-सा अपराधबोध तारी होने लगता है और जब चंद मिनटों के बाद आप थिएटर से बाहर निकलते हैं तो इस फिल्म से उपजे ये और ऐसे कई सवाल लंबे समय तक आपका पीछा नहीं छोड़ते। यकीन नहीं होता कि आप अभी-अभी सिर्फ एक फिल्म देख कर निकले हैं। फिल्म-जिसका काम आमतौर पर मनोरंजन करना और कभी-कभार कोई संदेश भर देना ही मान लिया गया है। कसैले सच का ऐसा पुख्ता दस्तावेज भी क्या सिनेमा की भाषा में लिखा और दिखाया जा सकता है?
यकीन मानिए, ‘बोल’ कोई इतनी महान फिल्म नहीं है जो सिनेमाई शिल्प और व्याकरण पर हरफ-दर-हरफ खरी उतरती हो। लेकिन यह आपके मानस को इस कदर झकझोरने की कुव्वत रखती है कि इसे देख कर बाहर निकलने के बाद सामने झुरमुट लगाए खड़े टी.वी. चैनलों के कैमरों के सामने एकदम से कोई प्रतिक्रिया ही देते नहीं बनती।
अब हैरानी आपको यह जान कर भी हो सकती है कि यह फिल्म अपने यहां की नही बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से आई है। वही पाकिस्तान, जहां बनने वाले सिनेमा को न तो अपने यहां और न ही कहीं और कभी अच्छी नज़र से देखा गया। लेकिन तीन साल पहले आई शोएब मंसूर की ‘खुदा के लिए’ ने इस नज़रिए को बदल दिया। वैश्विक आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद का पर्याय मान लिए जाने की पश्चिमी देशों की सोच और खुलेपन का दावा करती उनकी संस्कृतियों के अंदर के अंधेरे को उजागर करती इस बेहद कमाल की फिल्म देखने के बाद इस विषय पर अब और कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश ही नज़र नहीं आती। ‘बोल’ भी उन्हीं शोएब की ही फिल्म है जिसे देख कर आप यह सोच कर भी हैरान हो सकते हैं कि कट्टरपंथी पाकिस्तान के तंग सोच वाले माहौल में यह कैसे वहां के सैंसर बोर्ड से पास हुई होगी। यकीनन ऐसी फिल्म अपने यहां नहीं बन सकती और अगर बन भी जाए तो यह मुमकिन नहीं कि उस पर कोई विवाद खड़े न हो।
हालांकि पहली नज़र में यह बेटे की चाह में बेटियों की लाइन लगाने वाले एक रूढ़िवादी पाकिस्तानी परिवार की कहानी लगती है। लेकिन इस एक कहानी के समानांतर और कई चीज़ें भी यह उठाती है और उन पर उतनी ही शिद्दत के साथ बात भी करती है। साथ ही यह आज के पाकिस्तान के अंदर के कई चेहरे भी एक साथ दिखाती है। ऐसे चेहरे भी जिनसे हमारे यहां का अवाम कमोबेश अभी भी नावाकिफ ही है। मसलन कई बेटियों को पैदा करने वाले हकीम के पुरखे बंटवारे के बाद हिन्दुस्तान से गए थे और फिल्म दिखाती है कि कभी मुहाजिर कह कर अलग पांत में खड़े किए जाने वाले इन लोगों को लेकर वहां अब कोई द्वेष-भाव नहीं है। कई बेटियों के बाद हकीम के यहां पैदा होने वाले हिजड़े बच्चे की परवरिश और समाज में उसे हेय दृष्टि से देखे जाने और सिर्फ एक खिलौने की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति को भी यह फिल्म दिखाती है और वैसे हालात अपने यहां भी उतने ही कसैले और स्याह हैं जितने कि पाकिस्तान में।
बेटियों की भरमार वाले घर में रोटी की जुगत हकीम को तवायफों के बच्चों को कुरान पढ़ाने पर मजबूर कर देती है और वह पौने दो लाख रुपए में वहां एक बेटी पैदा करने का ठेका ले लेता है। फिल्म दिखाती है कि जो बेटियां एक आम घर में बोझ समझी जाती हैं वही एक वेश्या के घर में खुशी का सबब बन कर आती हैं। वह दृश्य दिल को कचोटता है जब तवायफ की बेटी पैदा होने पर उसके कान में अज़ान फूंकने की बजाय मोबाइल फोन से उसे ‘पाकीज़ा’ फिल्म का ‘ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे...’ सुनाया जाता है। ज़ाहिर है कि इस लड़की का मुस्तकबिल भी कोठे की चारदीवारियों में ही कैद होकर रह जाने वाला है। और तो और फिल्म भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच को किसी धर्मयुद्ध की तरह लेने की दोनों ओर की कुंठित सोच पर भी प्रहार करती है जब जैनब कहती है कि इंडिया-पाकिस्तान का मैच होता है तो वहां वाले भगवान को परेशान करना शुरु कर देते हैं और यहां वाले अल्लाह मियां के पीछे पड़ जाते हैं गोया कि मैच इन दोनों के बीच हो रहा हो।
पर यह फिल्म किसी डार्क नोट पर खत्म नहीं होती है। जैनब अपने पिता को मार कर फांसी चढ़ जाती है जिसके बाद उसकी बहनें तो अपने पैरों पर खड़ी होती ही हैं, तवायफ से पैदा हुई अपनी ‘बहन’ की भी अच्छी परवरिश करती हैं। उधर जो राष्ट्रपति जैनब की दया-याचिका बिना पढ़े सिर्फ इसलिए ठुकरा देते हैं कि यह फांसी की सज़ा पाई एक ‘औरत’ की अपील है और जिन्हें उनका स्टाफ मीडिया के पुरज़ोर दबाव के बावजूद नींद से जगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता वही राष्ट्रपति टी.वी. पर जैनब की कहानी सुन कर एक सेमिनार बुलाने को कहते हैं जिसका विषय होता है-मारना ही जुर्म क्यों है,
पैदा करना क्यों नहीं...?
इस फिल्म को टैक्स-फ्री किया जाना चाहिए क्योंकि एक तो बढ़ती आबादी और लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने को लेकर हमारी चिंताएं भी पड़ोसी मुल्क जितनी ही हैं और दूसरे अगर सरकार एक पाकिस्तानी फिल्म को टैक्स-फ्री करती है तो इससे अपनी सरकार के संवेदनशील होने का संदेश तो जाएगा ही,
साथ ही उस पार वालों की सोच में भी फर्क आ सकता है। मुमकिन है कि दोनों देशों को करीब लाने का जो काम दोनों तरफ के सियासती लोग इतने बरसों में भी नहीं कर पाए, उसे कोई फिल्म ही कर दे। शुरुआत किसी को तो करनी ही होगी, बड़े भाई होने के नाते हम ही क्यों न आगे बढ़ें?
सलमान-करीना की ‘बॉडीगार्ड’ की टक्कर में आ रही इस फिल्म को हल्के से मत लीजिएगा। मीठी ईद पर उस पार से आई ईदी है यह,
इसे दिल से कबूल कीजिए!
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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