Saturday 13 August 2016

रिव्यू-ज़िंदा अतीत की मुर्दा कहानी ‘मोहेंजो दारो’

-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक था राजा, एक थी रानी, दोनों मर गए... जी नहीं, कहानी यहां खत्म नहीं हुई। राजकुमार बच गया और बरसों बाद वह उसी राज्य में लौटा जहां का दुष्ट मंत्री उसके पिता को मार कर खुद राजा बन बैठा था। इस दुष्ट राजा के बेटे की होने वाली संगिनी से राजकुमार को प्यार हो गया और... आगे की कहानी भी बताई जाए क्या...?

सिर्फ ऐतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाने की जिद पकड़े बैठे आशुतोष गोवारीकर ने सिंधु घाटी सभ्यता के मोहेंजो दारो नगर को अपनी कहानी की पृष्ठभूमि में रखा है। समय है ईसा से 2016 साल पहले का। उस दौर के बारे में जो जानकारी अभी तक मिल पाई है उसमें अपनी कल्पनाओं को जोड़ते हुए आशुतोष और उनकी टीम ने एक भव्य नगर और वहां के लोगों की जीवनशैली को उकेरा है। लेकिन जिस कहानी के चारों तरफ इसे लपेटा जाना था वह बेहद कमजोर और साधारण है और इसीलिए यह फिल्म सिर्फ टुकड़ों-टुकड़ों में ही असर छोड़ती है। नायक-नायिका के प्यार की खुशबू महसूस नहीं हो पाती। दुष्ट राजा के अत्याचार क्रूर नहीं लगते। भावनाएं कचोट नहीं पातीं। हास्य तो खैर है ही नहीं। हां, एक्शन जरूर बढ़िया है और वह लुभाता भी है।

कई सराहनीय बातें भी हैं फिल्म में। मोहेंजो दारो के विनाश का कारण बताते हुए फिल्म कहती है कि जब-जब इंसान ने कुदरत के साथ बेजा छेड़छाड़ की, कुदरत ने देर-सवेर अपना बदला जरूर लिया है। अपने बसे-बसाए घरों को आपदा के समय छोड़ने का दर्द भी नगर वासियों के चेहरों पर दिखता है। बुजुर्ग बताते हैं कि 1947 में बंटवारे के समय जब वह पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) छोड़ कर भागे थे तो कई चूल्हों में आग पर पतीलियां चढ़ी हुई थीं। इस फिल्म में भी ऐसा एक सीन है।

हृतिक रोशन ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है। सच तो यह है कि पूरी फिल्म में सिर्फ उन्हीं को देखने का मन करता है। कबीर बेदी भी ठीक रहे। बाकी किसी को अपना दम दिखाने का मौका इसलिए भी नहीं मिला क्योंकि किसी के किरदार को स्क्रिप्ट में कायदे से मजबूत बनाया ही नहीं गया। गाना भी एक ही लुभा सका। यकीन नहीं होता कि ए.आर. रहमान इस कदर हल्का संगीत दे सकते हैं।

फिल्म में मनोरंजन देने वाले तत्वों की कमी है, यादगार पल नहीं हैं, दमदार संवाद नहीं हैं, इतिहास से रूबरू करवा कर झिंझोड़ पाएं, ऐसे सीन भी नहीं हैं। आशुतोष की इस कोशिश की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन उसके लिए आपको दो-चार सौ रुपए फूंकने हैं या नहीं, यह फैसला आपको ही करना है। अपन तो कहेंगे कि साल भर पहले आई बाहुबलीदोबारा देख लीजिए, बेहतर होगा।
अपनी रेटिंग-2 स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम(www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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