
करीब साढ़े छह बरस पहले आई अपनी पहली फिल्म ‘दूल्हा मिल गया’ में औंधे मुंह गिरने के बाद निर्देशक मुदस्सर अज़ीज़ अपनी इस दूसरी फिल्म में न सिर्फ संभले हैं बल्कि सधी हुई चाल चलते हुए दर्शकों के दिलों में जगह बनाने में भी कामयाब हुए हैं।
अमृतसर की हैप्पी अपने प्रेमी से शादी करने के लिए अपनी शादी से भागी तो गलती से लाहौर जा पहुंची और वह भी वहां के एक नामी नेता के घर में। नेता का बेटा कैसे उसके प्रेमी को पाकिस्तान लाता है और कैसे उन दोनों की शादी करवाता है, यही भागमभाग है इस कहानी में।
पहले ही सीन से फिल्म अपने ट्रैक पर है और एक-आध जगह हिचकोले खाने के बावजूद यह पटरी नहीं छोड़ती। इसे देखते हुए आप मुस्कुराते हैं, हंसते हैं, ठहाके लगाते हैं और मन में गुदगुदाहट लिए थिएटर से बाहर निकलते हैं। हंसते-हंसाते फिल्म भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर हल्के-फुल्के कमैंट भी कर डालती है। एक सीन कमाल का है। पाकिस्तानी पुलिस अफसर सिर्फ इसलिए इंडिया नहीं जाना चाहता क्योंकि वह इंडिया का नमक नहीं खाना चाहता। जवाब मिलता है-नमक तो पूरा पाकिस्तान इंडिया का ही खाता है क्योंकि नमक हम वहीं से मंगवाते हैं।
फिल्म के किरदार इसकी खासियत हैं। खासतौर से पाकिस्तानी पुलिस अफसर आफरीदी (पीयूष मिश्रा) जो वतनपरस्त है लेकिन जिसे मलाल है कि महात्मा गांधी, मिर्जा गालिब, ताज महल, कपिल देव, यश चोपड़ा जैसी हर अच्छी चीज तो इंडिया के पास रह गई। पीयूष ने अपनी अदाकारी और लच्छेदार उर्दू से भरी संवाद-अदायगी से इस रोल को भरपूर जिया है।
फिल्म के किरदार इसकी खासियत हैं। खासतौर से पाकिस्तानी पुलिस अफसर आफरीदी (पीयूष मिश्रा) जो वतनपरस्त है लेकिन जिसे मलाल है कि महात्मा गांधी, मिर्जा गालिब, ताज महल, कपिल देव, यश चोपड़ा जैसी हर अच्छी चीज तो इंडिया के पास रह गई। पीयूष ने अपनी अदाकारी और लच्छेदार उर्दू से भरी संवाद-अदायगी से इस रोल को भरपूर जिया है।
पाकिस्तानी नेता के बेटे बिलाल के किरदार में अभय देओल पूरी फिल्म में छाए रहे हैं। हैप्पी से जबरन शादी करने जा रहे बग्गा के रोल में जिम्मी शेरगिल ‘तनु वैड्स मनु’ के अपने ही रोल को दोहराने के बावजूद प्यारे लगते हैं। तेजतर्रार हैप्पी बनी डायना पेंटी जंची हैं मगर उन्हें कुछ और धमाकेदार सीन दिए जाने चाहिएं थे। हैप्पी के प्रेमी के रोल में अली फजल इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। न उनके रोल में दम दिखा और न उनके काम में। हैप्पी और निठल्ले गुड्डू के रोमांस की वजह और खुशबू भी पता नहीं चल पाती।
कहानी का ज्यादातर हिस्सा लाहौर
का है। इसके लिए जो सैट और आउटडोर में जो माहौल तैयार किया गया है, वह लाजवाब है। म्यूजिक काफी कमजोर
है।
ढूंढने बैठें तो इस फिल्म में और भी कई
छोटी-मोटी कमियां खोज निकालेंगे। मगर जब सामने पर्दे पर हंसी की बौछार हो रही हो और
वह भी बिना किसी फूहड़ता के, तो भला ऐसी कमियों पर कोई क्यों ध्यान दे? हैप्पी होना है तो इस फिल्म को
देख डालिए। पूरे परिवार संग बैठ कर हंसने के मौके वैसे भी अब कहां मिलते हैं। और हां, यह नॉनसेंस कॉमेडी नहीं है, दिमाग साथ लेकर जाइएगा।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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