
अपनी पहली ही फिल्म में सौमेंद्र पधी इस ऑफबीट विषय को न सिर्फ कायदे से उठाते हैं बल्कि बिना डगमगाए वह उन सब बातों को भी दिखा जाते हैं जो बुधिया की कहानी से जुड़ी रहीं। बुधिया को किसी में भविष्य का ओलंपिक विजेता नजर आता है तो वहीं कुछ लोगों को लगता है कि वह बिरंची के ऊंचे सपनों की सवारी है। कैसे एक प्रतिभाशाली बच्चा राजनीति और सिस्टम का शिकार होकर रह जाता है, फिल्म इसे भी बखूबी दिखाती है।
फिल्म का प्रवाह काफी सहज है। निर्देशक चाहते तो इसमें और ज्यादा ड्रामा, और ज्यादा मसाले डाल सकते थे। यह इस फिल्म की खासियत है तो यही इसकी कमी भी है। इस किस्म की फिल्मों में जोश और जुनून देखने के आदी दर्शकों को यह इसी वजह से रूखी भी लग सकती है। लेकिन इससे फिल्म और निर्देशक की नेकनीयती पर शक नहीं किया जा सकता। हां,
थोड़ी और कसावट इसे ज्यादा मजबूत बना सकती थी।
मनोज वाजपेयी एक बार फिर अपने किरदार को डूब कर जीते दिखाई दिए हैं। बुधिया बने मयूर काफी सहज रहे हैं। श्रेया मराठे,
तिलोत्तमा शोम,
गोपाल सिंह,
गजराज सिंह,
राहुल आदि का काम भी अच्छा रहा है।
सैंसर से यह फिल्म ‘दूरंतो’ नाम से पास हुई है। सर्वश्रेष्ठ बाल-फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी इसे मिल चुका है। आप इसे देख कर आंदोलित-उद्वेलित भले न हों,
लेकिन इसका असर देर तक आपके जेहन में रहेगा, यह तय है।
अपनी रेटिंग-3 स्टार

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