करीब दस बरस पहले चार-पांच साल के बुधिया ने ओड़िशा में ढेरों मैराथन दौड़ कर दुनिया भर में नाम कमाया था। बेहद गरीब घर के इस बच्चे को एक अतिमहत्वाकांक्षी कोच बिरंची दास दुनिया के सामने लाया था लेकिन कैसे उसके इरादे,
बुधिया के सपने और लोगों की उम्मीदें राजनीति का शिकार होकर गर्क हो गई थीं यह तब पता चलता है कि वही बुधिया आज एक असाधारण प्रतिभाशाली लड़के से एक आम किशोर में तब्दील हो चुका है। हालांकि वह अभी भी दौड़ना चाहता है लेकिन कोई उसे मदद नहीं कर रहा है।
अपनी पहली ही फिल्म में सौमेंद्र पधी इस ऑफबीट विषय को न सिर्फ कायदे से उठाते हैं बल्कि बिना डगमगाए वह उन सब बातों को भी दिखा जाते हैं जो बुधिया की कहानी से जुड़ी रहीं। बुधिया को किसी में भविष्य का ओलंपिक विजेता नजर आता है तो वहीं कुछ लोगों को लगता है कि वह बिरंची के ऊंचे सपनों की सवारी है। कैसे एक प्रतिभाशाली बच्चा राजनीति और सिस्टम का शिकार होकर रह जाता है, फिल्म इसे भी बखूबी दिखाती है।
फिल्म का प्रवाह काफी सहज है। निर्देशक चाहते तो इसमें और ज्यादा ड्रामा, और ज्यादा मसाले डाल सकते थे। यह इस फिल्म की खासियत है तो यही इसकी कमी भी है। इस किस्म की फिल्मों में जोश और जुनून देखने के आदी दर्शकों को यह इसी वजह से रूखी भी लग सकती है। लेकिन इससे फिल्म और निर्देशक की नेकनीयती पर शक नहीं किया जा सकता। हां,
थोड़ी और कसावट इसे ज्यादा मजबूत बना सकती थी।
मनोज वाजपेयी एक बार फिर अपने किरदार को डूब कर जीते दिखाई दिए हैं। बुधिया बने मयूर काफी सहज रहे हैं। श्रेया मराठे,
तिलोत्तमा शोम,
गोपाल सिंह,
गजराज सिंह,
राहुल आदि का काम भी अच्छा रहा है।
सैंसर से यह फिल्म ‘दूरंतो’ नाम से पास हुई है। सर्वश्रेष्ठ बाल-फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी इसे मिल चुका है। आप इसे देख कर आंदोलित-उद्वेलित भले न हों,
लेकिन इसका असर देर तक आपके जेहन में रहेगा, यह तय है।
अपनी रेटिंग-3 स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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