यह फिल्म शुरू हुई तो अपने मुंह में एक च्यूईंगम था। थोड़ी ही देर में दोनों का रस खत्म हो चुका था। लेकिन न तो च्यूईंगम और न ही फिल्म से छुटकारा मिलने वाला था। थिएटर में थूकना मना होता है न…! इंटरवल में वह च्यूईंगम तो फेंक आया लेकिन अभी आधी फिल्म और झेलनी बाकी थी।
जी हां, यह फिल्म इस साल की ही नहीं, हिन्दी सिनेमा की भी ज़बर्दस्त पकाऊ फिल्मों में से एक है। बचपन से साथ पले-बढ़े एक लड़का-लड़की जो एक-दूसरे के बिना अपनी जिंदगी के बारे में सोच भी नहीं सकते। मगर जब बड़े होकर प्यार या शादी की बात आई तो उनमें से कोई एक, या दोनों कन्फ्यूज़ हो गए।
अरे बस करो यार, कब तक वही घिसी हुई कहानी को पंक्चर लगा-लगा कर चलाने की कोशिश करोगे। माना कि जवानी दीवानी होती है पर उसका यह मतलब तो नहीं कि आप अपने पागलपन को फिल्मों में निकालना शुरू कर दें। कई फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर रहने के बाद अपनी इस पहली फिल्म से नित्या मेहरा को समझ आ गया होगा कि ड्राईवर के बगल में बैठने और खुद ड्राईविंग करने में कितना फर्क होता है।
ऐसा नहीं कि इस फिल्म की कहानी बिल्कुल ही पैदल है। अपने कैरियर की परवाह करते हुए आने वाले कल से घबराने वाली युवा पीढ़ी के रिश्तों से भागने की यह कहानी कहना तो बहुत कुछ चाहती है लेकिन जिस अंदाज में इसे कहा गया है, यकीन मानिए, कचूमर निकाला गया है। स्क्रिप्ट बेहद लचर और बोर करने वाली है। संवाद बेदम हैं।
सिद्धार्थ मल्होत्रा ठीक-ठाक से रहे हैं। कैटरीना इस किस्म के शो-पीस नुमा किरदारों को कई बार निभा चुकी हैं। बाकी किसी को भी कोई खास रोल नहीं मिला। गाने फिर भी ठीक हैं।
अमीर लोगों की शादी वाले घर की रौनक, चटकीले रंग, भड़कीले सैट, चमकते चेहरे... ये सब बेकार हैं अगर कहानी आपको न तो मनोरंजन दे पाए और न ही कोई उम्दा मैसेज।
फिल्म खत्म हुई तो थिएटर के टार्च-मैन ने मुझ से कहा-सर जी, आप तो एक शो झेल कर चले जाओगे, हमें तो पूरे हफ्ते इसे भुगतना है। बताइए, मैं क्या कहता...?
अपनी रेटिंग-एक स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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