गुजरात का कच्छ इलाका। गांव की पंचायत फैसला सुनाती है कि अपने पति के घर से लौट आई एक नवविवाहिता को उसी घर में वापस जाना होगा। वह लड़की लौटना नहीं चाहती मगर कोई उसकी नहीं सुनता। अपनी मां को वह बताती है कि उसका ससुर उसके साथ जबर्दस्ती करता है लेकिन बेबस मां सब सुन कर भी चुप रह जाती है।
फिल्म की इस शुरूआती घटना का बाकी की फिल्म से कोई नाता नहीं है। मगर डायरेक्टर लीना यादव साफ कर देती हैं कि वह आगे क्या दिखाने जा रही हैं। एक ऐसा समाज जहां औरतें आज भी पुरुषों की निरंकुश सत्ता में लगभग गुलामों की तरह जीने को मजबूर हैं।
कहानी के केंद्र में मुख्यतः चार औरतें हैं। एक जवान विधवा रानी (तनिष्ठा चटर्जी) जिसका विवाहित जीवन कष्टों में बीता और अब वह अपने 17 साले के बेटे गुलाब के लिए बहू लाकर सोच रही है कि उसके कष्ट कुछ कम होंगे। इस औरत की एक सहेली लाजो (राधिका आप्टे) जो मां न बन पाने का दाग लिए रोजाना अपने शराबी पति से पिटती है। मेले-नौटंकी में नाचने और जिस्म बेचने वाली इन दोनों की सहेली बिजली (सुरवीन चावला)। गुलाब की 15 साल की बीवी जानकी (लहर खान) जो पढ़ना चाहती है और शादी से बचने के लिए अपने बाल काट लेती है।
इन चारों की कहानियों के बरअक्स फिल्म असल में समाज की उस सोच की तरफ इशारा करती है जिसके मुताबिक औरतों को अपनी मर्जी से कोई फैसले लेने का कोई हक नहीं है और मर्दों से मार खाना उनकी नियति है। लेकिन ये औरतें सपने देखने से बाज नहीं आतीं। पैसा, प्यार, पढ़ाई और सैक्स की बातें करती हैं। पुरुषों की सत्ता का विरोध करती हैं। इन्हें एतराज है कि सारी गालियां सिर्फ औरतों के बारे में ही क्यों हैं? आखिर एक दिन ये अपने पिंजरे छोड़ कर उड़ जाती हैं।
यह फिल्म हालांकि कड़वे सच दिखाती है। इन चारों की झुलसी हुई जिंदगियों में झांकती है लेकिन इसका अंत उम्मीदें लेकर आता है। तपते रेगिस्तान में पड़ने वाली बौछारों की तरह यह बताता है कि बंधन तोड़े बिना ऊंची उड़ान मुमकिन नहीं। लेकिन क्या यही हल है? ये औरतें समाज के सामने सीना तान कर नहीं खड़ी हो पातीं, न ही ये मौजूदा सोच को बदलने की कोई कोशिश करती हैं। इसकी बजाय ये पलायन कर जाती हैं एक बेहतर कल की तलाश में। पर क्या गारंटी है कि जहां ये जाएंगी, वहां का समाज यहां से बेहतर ही होगा?
फिल्म हालांकि पूरे समय बांधे रखती है और इसका अंत सुहाता भी है मगर क्लाइमैक्स में यह लेखक और निर्देशक की कल्पनाशक्ति का अभाव भी दिखाता है। फिर भी लीना अपनी पिछली दोनों फिल्मों ‘शब्द’ और ‘तीन पत्ती’ से इस बार आगे ही निकली हैं।
तनिष्ठा, राधिका और सुरवीन अपने-अपने किरदारों में फिट रही हैं। राधिका के बोल्ड सीन सचमुच उनके दुस्साहस का प्रतीक हैं। लहर ने भी अपने किरदार को बखूबी पकड़ा। हालांकि उनके किरदार को थोड़ा और विस्तार दिया जाना चाहिए था।
इस किस्म की फिल्मों पर ‘फेस्टिवल सिनेमा’ का ठप्पा लगाया जाता है। लेकिन यह फिल्म बोर नहीं करती है। कुछ अच्छा देखना चाहें, दमदार देखना चाहें तो ‘पार्च्ड’ आप ही के लिए है।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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