Friday, 23 September 2016

रिव्यू-इस ‘बेंजो’ से न दिल झूमा न पांव थिरके

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
बेंजों एक ऐसा साज़ है जो बजता है तो दिल के तार छेड़ देता है फिल् बताती है कि मुंबई में ऐसी कई बेंजो पार्टियां हैं जो गणपति और नवरात्रि के दिनों में होने वाले जलसों में लोगों को झुमाती-थिरकाती हैं। ऐसे ही एक बेंजो ग्रुप की तलाश में अमेरिका से आई एक लड़की क्रिस झोंपड़पट्टी में रहने वाले इन लोगों को कैसे नाम, पहचान और शोहरत दिलाती है, यही इस फिल्म की कहानी है।

यह फिल्म इसलिए भी उत्सुकता जगाती है क्योंकि यह उन रवि जाधव की हिन्दी में निर्देशित पहली फिल्म है जो मराठी सिनेमा में अपनी एक अलग हैसियत रखते हैं और राष्ट्रीय पुरस्कार तक पा चुके हैं। शायद इसीलिए यह फिल्म ज्यादा निराश भी करती है क्योंकि जब आप लगातार अच्छा काम करते रहे किसी शख्स से उम्मीदें लगाएं और वह उन उम्मीदों को तोड़े तो दर्द भी ज्यादा होता है।

अपने मिजाज से यह फिल्म रेमो की .बी.सी.डी.-एनी बडी कैन डांसके करीब लगती है। उसी की तरह यहां भी बस्ती में रहने वाले कुछ युवा हैं जिनके सपने ऊंचे हैं। लेकिन यह फिल्म इन युवाओं के संघर्ष को नहीं दिखाती। अपने सपनों को सच करने की उनकी कोशिशों को सामने नहीं लाती। ही इन लोगों के अंदर संगीत के लिए कोई जुनून है। क्रिस से प्रेरित होकर ये लोग खुद को बदलते हैं लेकिन वह बदलाव रस्मी-सा लगता है। इनका एक विरोधी बेंजो प्लेयर तो रातोंरात गुंडे से यूं शरीफ बन जाता है जैसे उसका दूसरा जन्म हुआ हो। फिर इस कहानी में और भी ढेरों ऐसी चीजें ठूंसी गई हैं कि यह इधर की रहती है उधर की। जाहिर है कि इसे लिखने-बनाने वालों को खुद पर यह भरोसा ही नहीं था कि वे एक खालिस म्यूजिकल फिल्म बना कर कामयाबी हासिल कर पाएंगे। इस चक्कर में अच्छी-भली फिल्म का झोलझाल बना कर रख दिया इन लोगों ने।

रितेश देशमुख और उनके साथ अपने किरदारों में जंचे। लेकिन नरगिस फाखरी में वह बात ही नजर नहीं आई जो संगीत बनाने वाली एक ऐसी जुनूनी लड़की में होती है। फिल्म की लोकेशंस, सैट्स और कैमरागिरी जरूर बढ़िया है।

एक म्यूजिकल फिल्म का म्यूजिक ऐसा होना चाहिए जो छिड़े तो सुनने वाले को छेड़ कर रख दे। विशाल-शेखर ने कोशिश तो सराहनीय की मगर एक ही गाना ऐसा बना पाए। फिल्म के अंत में जब नायक अपने ग्रुप के साथ पर्दे पर सब लोगों को थिरका रहा होता है, वह थिरकन पर्दे से उतर कर दिलों तक नहीं पहुंच पाती। टुकड़ों-टुकड़ों में यह फिल्म हंसाती, थिरकाती है मगर ये टुकड़े कम हैं और दूर-दूर भी।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम(www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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