-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
सिनेमा और क्रिकेट-इस देश के लोगों में इन दोनों के ही
प्रति जबर्दस्त दीवानगी है। ऐसे में अगर भारतीय क्रिकेट के स्टार खिलाड़ी महेंद्र सिंह
धोनी की जिंदगी पर कोई फिल्म बन कर आए तो लोगों में उसके प्रति हद दर्जे की उत्सुकता
होना स्वाभाविक है। इस फिल्म को देखते हुए यह उत्सुकता भले ही पूरी तरह से शांत न होती
हो, मगर यह फिल्म धोनी से जुड़ी हर वह चीज आपको परोसने की कोशिश करती है,
जो जरूरी है। यह बात अलग
है कि यह बड़ी ही चतुराई से कई चीज़ें छुपा भी जाती है।
पान सिंह धोनी के घर में एक बेटे के पैदा होने से लेकर
उसके एक नामी क्रिकेटर बनने और वनडे इंटरनेशनल में वर्ल्ड कप जीतने तक के इस सफर में
ज्यादातर बातें वही हैं जो धोनी के दीवानों को पता होंगी। लेकिन फिल्म डाॅक्यूमैंट्री
या जीवनी न होने का दावा करती हुई भी उन तमाम बातों को सिलेसिलेवार दिखाती है।
शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि पर्दे पर किसी हिन्दी फिल्म
के दो नाम ‘एम एस धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी’ और ‘एम एस धोनी-एक अनकही कहानी’
दिखाई देते हैं। दूसरे
वाले नाम से सस्पैंस या हॉरर की महक आती है, मुमकिन है इसीलिए पहले वाला नाम
रखा गया हो। लेकिन यहीं गड़बड़ हुई है। धोनी के प्रसंशक पूछ सकते हैं कि इसमें ‘अनटोल्ड’
या ‘अनकहा’
क्या था?
मगर यह फिल्म इसका जवाब
देती है और भरपूर देती है।
किसी भी खिलाड़ी के महान बनने के पीछे,
घर-घर और दिल-दिल में राज
करने के पीछे उसका खुद का एक लंबा और तकलीफ भरा संघर्ष तो रहता ही है,
उसके घरवालों,
दोस्तों,
करीबियों की भी उसमें महती
भूमिका रहती है और यह फिल्म उनकी इस भूमिका को न सिर्फ कायदे से समझती और समझाती है
बल्कि बताती है कि कोई भी सिर्फ खुद के दम पर महान नहीं हो सकता। धोनी के मामले में
उसके पिता का उसके सुरक्षित भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहना,
उसकी बहन,
उसके दोस्तों,
साथी खिलाड़ियों,
कोच,
उसे रेलवे में नौकरी देने
वाले अफसर, उसके सहकर्मी जैसे ढेरों किरदारों की सोच और नीयत के बारे में खुल कर दिखाती है
यह फिल्म।
निर्देशक नीरज पांडेय किरदारों के मन में झांकते
हुए सीन-दर-सीन कहानी बुनने का हुनर बखूबी जानते हैं। सुशांत सिंह राजपूत ने धोनी के
किरदार को न सिर्फ निभाया है, बल्कि जिया है। अपनी हर अदा से
वह इस किरदार को सशक्त बनाते हुए नजर आते हैं। अनुपम खेर,
राजेश शर्मा,
कुमुद मिश्रा जैसे कलाकार
उन्हें भरपूर सहयोग देते हैं। दोनों नायिकाओं की मौजूदगी प्यारी लगती है। भूमिका चावला
को बहन-भाभी के ऐसे किरदारों को करते रहना चाहिए। गीत-संगीत काफी साधारण है। चंद जोरदार
गाने होते तो यह फिल्म और गहरा असर छोड़ती। हां, बैकग्राउंड म्यूजिक असरदार है
और वह फिल्म को ज्यादा प्रभावी बनाने में मदद करता है। लोकेशंस भी स्क्रिप्ट की जरूरत
के मुताबिक चुनी गईं और रांची क्षेत्र की भाषा भी।
लेकिन यह फिल्म कमियों से भी अछूती नहीं है। इसे देखते
हुए साफ लगता है कि इसे धोनी के प्रचार और उनके सिर्फ उजले पक्ष को दिखाने के लिए ही
बनाया गया है। उनका शांत स्वभाव, कम बोलना,
विनम्रता, मोटर-साइकिलों के प्रति
दीवानगी जैसे ढेरों पहलुओं को दिखाने के फेर में यह 3 घंटे 10 मिनट की हो गई जो सचमुच
बहुत ज्यादा हैं। स्क्रिप्ट में कुछ एक झोल और थोड़ी-बहुत लड़खड़ाहट के अलावा कुछ चीजों
का जबरन ठूंसा जाना भी इसे हल्का बनाता है।
फिर भी यह फिल्म बहुत कुछ देती है। क्रिकेट और धोनी के
चाहने वालों के अलावा क्रिकेट से दूर रहने वाले मुझ जैसे आम दर्शकों के लिए भी इसमें
बहुत कुछ है। खासतौर से यह मैसेज कि मेहनत और किस्मत के अलावा एक और भी चीज है जो आपको
आपकी मंजिल तक ले जाती है और वह है सही समय पर लिया गया सही फैसला।
माही को अगर मैदान जीतने आते हैं तो उन पर बनी यह फिल्म भी
बॉक्स-ऑफिस जीतने जा रही है। इसे मिस मत कीजिएगा। वैसे भी पूरे परिवार के साथ बैठ कर
देखा जाने वाला सिनेमा अब अपने यहां कम ही बनता है।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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